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श्रद्धा और भागवत कृपा
श्रद्धा
श्रद्धा है चैत्य में सहज ज्ञान ।
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श्रद्धा एक निश्चिति है जिसके लिए जरूरी नहीं है कि वह अनुभव और ज्ञान पर आधारित हो ।
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श्रद्धा-'भगवान्' में विश्वास और 'भागवत विजय' की अविचल निश्चिति ।
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अविचल श्रद्धा का होना अच्छा है--यह तुम्हारे पथ को ज्यादा आसान और छोटा बना देती है ।
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सच्ची श्रद्धा परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती ।
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आध्यात्मिक शक्ति में श्रद्धा को परिस्थितियों पर निर्भर नहीं होना चाहिये ।
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भौतिक प्रमाणों पर टिकी श्रद्धा, श्रद्धा नहीं होती-वह सौदेबाजी होती है ।
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श्रद्धा पहले ज्ञान पीछे ।n * ८६ जिनमें श्रद्धा है वे पार हो जायेंगे ।
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श्रद्धा रखना और विजित होने का संकल्प होना अनिवार्य है । २ मई, १९४१
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श्रद्धा : तुम प्रज्ज्वलित होकर विजय पाती हो ।
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श्रद्धा सबसे घने अन्धकार के दिनों में सबसे अधिक निश्चित पथ-प्रदर्शक है । १६ अगस्त, १९५४
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हमारी सारी आशा अविचल श्रद्धा में निहित है । ३ सितम्बर, १९५४
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रात हमेशा आश्वासनों से भरी होती है । हमें पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ उसका सामना करना चाहिये । १८ अक्तूबर, १९५४
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हर क्षण सारा अप्रत्याशित, अनपेक्षित, अज्ञात हमारे सामने रहता है--और हमारे साथ जो कुछ होता है वह अधिकतर हमारी श्रद्धा की पवित्रता और तीव्रता पर निर्भर है । ३ नवम्बर, १९५४
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८७ अगर हमारे अन्दर सचमुच जीती-जागती श्रद्धा और भगवान् की सर्वसमर्थ शक्ति के लिए निरपेक्ष निश्चिति हो तो 'उनकी' अभिव्यक्ति इतनी प्रत्यक्ष हो सकती है कि उसके द्वारा समस्त धरती रूपान्तरित हो जाये । ५ नवम्बर, १९५४
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अपरिवर्तनशील श्रद्धा बनाये रखो । सत्य की विजय होगी । १० नवम्बर, १९७१
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भगवान् पर श्रद्धा रखो और अपने अन्दर गहरे जाओ । मेरी सहायता हमेशा तुम्हारे साथ है । ७ अप्रैल, १९७२
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श्रद्धा रखो और चलते चलो ।
१३ जुलाई ११७२
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हमारी सबसे बड़ी सहायता है--श्रद्धा । भगवान् दयामय हैं । प्रेम और आशीर्वाद सहित ।
विश्वास
बालक के सरल विश्वास में बड़ी शक्ति होती है । १७ नवम्बर, १९५४
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बालक के-से विश्वास के साथ हमारा हृदय भगवान् से अनुनय-विनय करता है । ५ दिसम्बर, १९५४
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८८ कठिनाइयों का सामना करने के लिए सबसे अच्छा तरीका है 'भागवत कृपा' पर स्थिर, अचंचल विश्वास । १३ अगस्त, १९६६ *
श्रद्धा और विश्वास रखो एवं प्रसन्न रहो ।
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कोई सलाह ?
स्थिर और विश्वस्त रहो । ३ सितम्बर, १९७२
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हर एक अपूर्ण है और उसे प्रगति करनी है । दृढ़ और विश्वस्त रहो । १७ दिसम्बर, १९७२
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विश्वस्त रहो तुम्हें जो बनना है वह बन जाओगे और जो करना है उसे प्राप्त कर लोगे ।
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तुम्हें भगवान् की विजय में पूरा-पूरा विश्वास होना चाहिये-और इस व्यापक 'विजय' में उन सबकी व्यक्तिगत विजय भी आ जाती है जो निष्ठावान् और विश्वस्त रहेंगे ।
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विश्वास के साथ हम आगे बढ़ेंगे, निश्चिति के साथ हम प्रतीक्षा करेंगे । ८९ |